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क्या कांग्रेस 1977 के चुनावी फॉर्मूले को लेकर 2019 का चुनाव जीतने का ख्वाब संजो रही है? 1977 में जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ समूचा विपक्ष एकजुट हुआ था क्या वो ही तस्वीर 2019 में बीजेपी के खिलाफ दिखाई देगी?

दरअसल बीजेपी की इस वक्त मजबूत स्थिति 1960 और 1970 के दशक में कांग्रेस की स्थिति को दर्शा रही है. कांग्रेस की ही तरह बीजेपी आज देश की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर राज्य दर राज्य अपनी विजय यात्रा जारी रखे हुए है. बीजेपी के विजयी रथ को रोकने के लिये कांग्रेस वर्किंग कमेटी में गहन मंथन हुआ. पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये ‘मिशन 300’ का प्लान पेश किया है.

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चिदंबरम का मानना है कि 12 राज्यों में कांग्रेस के मजबूत जनाधार को देखते हुए 150 सीटों का लक्ष्य रखा जाए. कांग्रेस अगर अपनी मौजूदा सीटों की संख्या को तीन गुना बढ़ा कर 150 तक पहुंचा ले तो बाकी 150 सीटों का बचा हुआ काम क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन पूरा कर सकते हैं. जिससे 272 के ‘मैजिक फिगर’ को यूपीए-3 पार कर सकती है.

चिदंबरम का मानना है कि तकरीबन 270 सीटें ऐसी हैं जहां क्षेत्रीय दलों के साथ रणनीतिक गठबंधन की मदद से 150 सीटें जीती जा सकती हैं. चिदंरबरम फॉर्मूले के तहत कांग्रेस 300 सीटों पर अकेले और 250 सीटों पर रणनीतिक गठबंधन के साथ चुनाव लड़े.

साल 2004 में भी कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 145 सीटें मिली थीं जिसके बाद उसने केंद्र में यूपीए-1 की सरकार बनाई थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 44 सीटें ही जीत सकी थी.

कांग्रेस की रणनीति ये हो सकती कि वो जिन राज्यों में मजबूत स्थिति या फिर नंबर दो पर हो वहां बीजेपी से सीधा मुकाबला करे. लेकिन जिन राज्यों में उसकी स्थिति नंबर 4 की हो तो वहां क्षेत्रीय दलों को बीजेपी से टक्कर के लिये आगे बढ़ाए और खुद पीछे रह कर समर्थन करे.

एनसीपी नेता शरद पवार ने भी ऐसा ही सुझाव कांग्रेस को सुझाया था. पवार ने चुनाव पूर्व महागठबंधन की कल्पना अव्यावाहरिक बताया था. उन्होंने महागठबंधन के आड़े आ रही क्षेत्रीय दलों की निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मजबूरी को सामने रखा था. उनका कहना था कि चुनाव में क्षेत्रीय दल पहले अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना चाहेंगे. भले ही बाद में बीजेपी विरोधी दल समान विचारधारा के नाम पर एक छाते के नीचे महागठबंधन बना लें.

लेकिन सवाल ये उठता है कि कांग्रेस के लिये आखिर 150 का आंकड़ा भी कैसे और किन राज्यों से आ सकेगा? इमरजेंसी के बाद कांग्रेस ने जिस तरह से सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी, वैसा ही करिश्मा दिखाने के लिये कांग्रेस के पास आज न ज़मीन है और न ही चेहरा.

दरअसल इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी की सबसे बड़ी वजह खुद जनता पार्टी भी थी. जनता पार्टी की सरकार अंदरूनी कलह की वजह से गिर गई थी. जिसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस जनता को ये समझाने में कामयाब रही कि सिर्फ कांग्रेस ही देश में शासन चला सकती है. उस वक्त कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा करिश्माई चेहरा भी था. पाकिस्तान से 1971 की जंग जीतने के सेहरा उनके राजनीतिक बायोडाटा में दर्ज था. ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ जैसे नारों की गूंज थी. लेकिन आज कांग्रेस के पास बीजेपी के भीतर भूचाल लाने वाले चेहरे का शून्य साफ देखा जा सकता है.

जहां कांग्रेस के लिये यूपीए 3 को लेकर चुनाव पूर्व गठबंधन की राहें इतनी आसान नहीं है तो वहीं चुनाव बाद महागठबंधन को लेकर भी आशंकाएं दिनों-दिन गहराने का ही काम कर रही हैं. अविश्वास प्रस्ताव में बीजेडी और टीआरएस जैसी पार्टियों के रुख ने कांग्रेस को झटका देने का काम किया है. इन दोनों ही पार्टियों ने खुद को वोटिंग से अलग रख कर बीजेपी का ही एक तरह से साथ दिया है. जबकि महागठबंधन को लेकर एसपी,बीएसपी और टीएमसी जैसी पार्टियों ने अब तक अपना रुख साफ नहीं किया है. कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में इन पार्टियों को अपने जनाधार खिसकने का भी डर है.

समान विचारधारा के नाम पर भी ये पार्टियां यूपीए3 का हिस्सा बनने से कतरा रही हैं क्योंकि कांग्रेस के ‘मुस्लिम पार्टी’ के ठप्पा का डर इन्हें भी लगने लगा है. यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी का मुस्लिम-यादव समीकरण का सत्ता दिलाने का हिट फॉर्मूला फेल हो गया तो बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग का किला भी ध्वस्त हो गया था. साफ है कि अब एसपी-बीएसपी भी लोकसभा चुनाव में हर कदम फूंक-फूंक कर रखेंगीं. ऐसे में कमजोर कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल की संभावना सियासी सौदेबाजी के कई चरणों के बाद ही हो सकती है.

बिहार की राजनीति में कांग्रेस अपने ही वजूद के लिये संघर्ष कर रही है. ऐसे में यहां उसके पास यूपीए के सहयोगी आरजेडी के सामने सरेंडर करने के अलावा कोई चारा नहीं है. बिहार की राजनीति में मुख्य लड़ाई आरजेडी और बीजेपी-जेडीयू के बीच ही होगी.

जबकि पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी पार्टी टीएमसी की नेता ममता बनर्जी का ज्यादा जोर थर्ड फ्रंट बनाने पर दिखता रहा है. लेकिन टीआरएस के बदले-बदले से मिजाज को देखकर वो भी अब खुद की पार्टी को ही चुनाव में मजबूत करने का काम करना चाहेंगीं. इसी तरह तमिलनाडु और केरल जैसे दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस की उम्मीदें डीएमके और सीपीएम जैसी पार्टियों पर है. इन राज्यों में कांग्रेस को अपने ही धैर्य का इम्तिहान लेना होगा. सीपीएम कभी हां-कभी ना के साथ कांग्रेस के साथ दिखाई देती है तो वहीं डीएमके भी बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते कोई नया दांव चल सकती है.

दरअसल सवाल सभी क्षेत्रीय दलों के अपने वजूद का भी है जो कि मोदी लहर की वजह से गड़बड़ाने के बाद अबतक सम्हल नहीं सका है.

ऐसे में कांग्रेस को मिशन 150 के लिये बीजेपी की मिशन 300+ की रणनीति से ही कुछ सीक्रेट फॉर्मूले निकालने होंगे. एक वक्त तक बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहा जाता था तो कांग्रेस को दलित-मुसलमानों के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता था. लेकिन आज बीजेपी ने सवर्णों की पार्टी के टैग को हटा कर सोशल इंजीनियरिंग की जो मिसाल पेश की उसकी काट किसी के पास नहीं है. कांग्रेस को भी एक नए समीकरण की तलाश करनी होगी क्योंकि उसका वोट बैंक क्षेत्रीय दल लूट चुके हैं.

यूपी में कांग्रेस को फिलहाल मंथन करने की जरूरत नहीं है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 2 सीटें ही मिलीं. जबकि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे सिर्फ 7 सीटें मिलीं. गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में उसकी जमानत भी जब्त हुई. ऐसे में यहां ज्यादा एक्सपेरीमेंटल होने की जरुरत नहीं है. यूपी की 80 लोकसभा सीटों को देखते हुए कांग्रेस को एसपी-बीएसपी गठबंधन पर ही भरोसा दिखाना होगा. कांग्रेस के पास यूपी में कोई करिश्माई चेहरा नहीं है. ऐसे में कांग्रेस सौदेबाजी की हालत में नहीं है. यहां वो दर्शन ठीक है कि जो मन का हो जाए तो ठीक है और न हो तो और भी ठीक है.

हालांकि साल 2009 की तर्ज पर कांग्रेस यहां सभी 80 सीटों पर दांव भी खेल सकती है क्योंकि उसके पास यहां खोने को कुछ नहीं है. अगर दांव चल गया तो कांग्रेस के लिये सबसे अप्रत्याशित एडवांटेज होगा.

गुजरात में लोकसभा की 26 सीटें हैं. साल 2014 में गुजरात में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव में ‘ट्रेलर’ दिखाने वाली कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में पूरी ‘पिक्चर’ दिखाएगी. गुजरात कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में सभी बीजेपी विरोधी ताकतों को साथ लाकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेगी.

गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं के साथ गठबंधन कर बीजेपी के ‘क्लीन-स्वीप’ के तिलिस्म को तोड़ दिया था. ऐसे में इस बार गुजरात में कांग्रेस को संभावना दिख रही हैं जो कि उसकी 150 सीटों के लक्ष्य को हासिल करने के लिये बूंद-बूंद से घड़ा भरने का काम कर सकती है.

इस बार पंजाब और राजस्थान को लेकर कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज है. पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में हारी कांग्रेस ने 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में जबरदस्त वापसी की. इस चुनाव से न सिर्फ उसकी सीटों में इजाफा हुआ बल्कि वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 38.5 फीसदी मत मिले. वहीं गुरुदासपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली जीत से कांग्रेस उत्साहित है. ऐसे भी संकेत मिल रही हैं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल को कड़ी टक्कर देने के लिये कांग्रेस आम आदमी पार्टी से भी हाथ मिला सकती है. आम आदमी पार्टी ने पंजाब के विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय मुकाबले में बदल दिया था.

इसी साल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होने वाले हैं. मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटों में कांग्रेस के पास केवल 2 ही सीटें हैं. ये सीटें ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना और कमलनाथ ने छिंदवाड़ा में जीती थीं. लेकिन इस बार कांग्रेस को एमपी में एंटीइंकंबेंसी से काफी उम्मीदें हैं. शिवराज के 15 साल के शासनकाल में उपजी सत्ताविरोधी लहर के भरोसे कांग्रेस न सिर्फ विधानसभा चुनाव जीतने का सपना देख रही है बल्कि उसे लोकसभा सीटें मिलने की भी उम्मीदें है.

इसी तरह छत्तीगढ़ में लोकसभा की 11 सीटें हैं. लेकिन कांग्रेस के पास यहां विद्याचण शुक्ल जैसा पुराना चेहरा नहीं है. नक्सली हमले में कांग्रेस ने अपने कई बड़े नेताओं को खो दिया था. बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह का फिलहाल कांग्रेस के पास यहां कोई तोड़ नहीं दिखाई देता है.

राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में आने का पूरा भरोसा है. यहां हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा है. विधानसभा चुनाव के साथ ही कांग्रेस को यहां लोकसभा सीटें भी जीतने की उम्मीद है. साल 2014 में राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों में से एक भी सीट कांग्रेस नहीं जीत सकी थी. लेकिन इस बार उपचुनावों में उसने लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट जीती.

उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक वक्त कांग्रेस का एकछत्र राज होता था. लेकिन बीजेपी ने अपनी रणनीति के तहत उत्तर-पूर्वी राज्यों में ताकत झोंक दी. बीजेपी ये जानती है कि यूपी में साल 2014 का करिश्मा दोहरा पाना आसान नहीं होगा. इसलिये उसने वैकल्पिक सीटों के लिये उत्तर-पूर्वी राज्यों को खासतौर से टारगेट किया. ये इलाके कांग्रेस और लेफ्ट का गढ़ होने के बावजूद अब भगवामय हो चुके हैं.

असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार है. वहीं नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट-लीड डेमोक्रेटिक गठबंधन को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ. ऐसे में कांग्रेस को उत्तर-पूर्वी राज्यों में कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि बीजेपी ने पूर्वोत्तर की 25 लोकसभा सीटों के लिये साल 2014 से ही तमाम परियोजनाओं के जरिये साल 2019 की तैयारी शुरू कर दी थी.

सबसे ज्यादा असम के पास 14 लोकसभा सीटें हैं. असम में बीजेपी की सरकार है. बीजेपी ने पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. कांग्रेस पांच राज्यों से सिमट कर मेघालय और मिजोरम तक ठहर गई है.

महाराष्ट्र को लेकर कांग्रेस थोड़ी सी आशान्वित हो सकती है. महाराष्ट्र के वोटरों में हर पांच साल में सरकार बदलने की मानसिकता रही है. यूपी के बाद महाराष्ट्र ही लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें देता है. यहां असली मुकाबला कांग्रेस-एनसीपी और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बीच है. फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं उसे देखकर लग रहा है कि बीजेपी यहां पर अकेले दम पर चुनाव लड़ सकती है क्योंकि शिवसेना के साथ रिश्ते काफी बिगड़ चुके हैं. कांग्रेस और एनसीपी इसका फायदा उठा सकते हैं.

कर्नाटक में भले ही कांग्रेस दोबारा सरकार नहीं बना पाई लेकिन उसे जेडीएस के रूप में साल 2019 का लोकसभा पार्टनर मिल गया है. कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में कांग्रेस को साल 2014 में केवल 9 सीटें ही मिली थीं. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन इस बार चुनाव में बीजेपी का गेम-प्लान बिगाड़ने का काम कर सकता है.

चिदंबरम के गेम-प्लान के मुताबिक अगर कांग्रेस को 150 सीटें हासिल करनी है तो उसे मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में जोरदार मेहनत करनी होगी तो वहीं क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों में गठबंधन को ही रणनीति बनानी होगी.

चिदंबरम के फॉर्मूले में अंकगणित के हिसाब से कागजों पर कांग्रेस करिश्मा देख सकती है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि मोदी-विरोधी मोर्चा केंद्र सरकार के खिलाफ किन मुद्दों पर मैदान में ताल ठोंक सकेगा? सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर चुनाव जीतने की गलतफहमी कांग्रेस को साल 2014 की ही तरह दोबारा ‘हाराकीरी’ पर मजबूर ही करेगी.

कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलनी होगी. पीएम मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक बयानों से बचना होगा. इसकी शुरुआत खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ही करनी पड़ेगी तभी दूसरे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जबान पर लगाम रखेंगे. अब राहुल भी ये जान चुके हैं कि ‘आंखों में आंख न डाल पाने वाले’ मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर कैसे विरोधियों को धूल चटा गए हैं.

कांग्रेस में पीएम मोदी पर बोलने के नाम पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का ‘भरपूर इस्तेमाल’ करने वाले नेता ही अपनी पार्टी का काम तमाम करते आए हैं. तभी राहुल को सीडब्लूसी की बैठक में बड़बोले नेताओं की बोलती बंद करने के लिये कड़ी कार्रवाई की धमकी देनी पड़ी है.

बहरहाल, कांग्रेस ये सोचकर खुद में आत्मविश्वास भर सकती है कि इस साल लोकसभा की दस सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी 8 सीटों पर हारी है. वहीं बीजेपी भी 8 सीटों की हार से 2019 के अपने मिशन 300+ की दोबारा समीक्षा कर सकती है. फिलहाल सौ साल पुरानी कांग्रेस को 150 सीटों की सख्त दरकार है. ये चुनौती इसलिये भी बड़ी है क्योंकि कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है.

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