Sunday, December 22


मसीहाई अंदाज अपनाने की जगह राहुल अगर राजनीति के मैदान में राजनीतिक तौर-तरीकों के साथ पेश आएं तो उनकी आगे की राह आसान होगी


क्रांतिकारियों का एक खास लक्षण होता है- वे खुद को धोखे में रखते हैं. मार्क्सवादी काट के क्रांतिकारियों में यह लक्षण कुछ ज्यादा ही उभरकर सामने आता है. और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी राजनीति में इस लक्षण को साकार करने को एकदम से बेताब नजर आ रहे हैं.

बात की सच्चाई जाननी हो तो जरा उनके नए-नवेले ट्वीट पर गौर फरमाइए. ट्वीट अपने फिक्र और अंदाज में एकदम मसीहाई तेवर वाला है. ट्वीट में लिखा है, ‘मैं कतार में खड़े आखिरी आदमी के साथ हूं, उनके साथ जो शोषित, पीड़ित और वंचित हैं चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या विश्वास के मानने वाले हों. मैं उन्हें खोजता हूं जो दुखी हैं और मैं उन्हें गले लगाता हूं. मेरा काम डर और नफरत को खत्म करना है. मुझे सभी जिंदा चीजों से प्यार है. मैं कांग्रेस हूं.’

अब वे यहां ‘मैं कांग्रेस हूं’ की जगह ‘मैं बुद्ध हूं/ मैं गीता हूं/ मैं ईसा मसीह हूं/ मैं पैगम्बर हूं’ सरीखा कोई भी वाक्य लिख सकते थे, बात वही रहती.


Rahul Gandhi

@RahulGandhi

I stand with the last person in the line. The exploited, marginalised and the persecuted. Their religion, caste or beliefs matter little to me.

I seek out those in pain and embrace them. I erase hatred and fear.

I love all living beings.


इस ट्वीट में यों तो कुछ भी गलत नहीं है सिवाय इसके कि ख्यालों का एक निहायत ही बेईमान इजहार है और इजहार एक ऐसी पार्टी के मुखिया ने किया है जो देश की सबसे पुरानी पार्टी है- एक ऐसी पार्टी जिसने देश की आजादी के वक्त तक सत्य और अहिंसा को अपना रहबर बनाया था. महात्मा गांधी को यह बात जरा भी पसंद ना थी कि कोई भाषा का इस्तेमाल अपनी मंशा को छुपाने के लिए करे.

जहां तक ट्वीट का सवाल है, राहुल को बेशक हक है कि वे अपने को धोखे में रखें, उनके इस हक पर किसी को क्या ऐतराज होगा भला. लेकिन लोगों को भुलावा देने के लिए उन्होंने साधु-संन्यासियों वाले मुहावरे का इस्तेमाल किया है सो ऐसे मुहावरे की कारगर काट करना जरूरी है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु का व्यक्तित्व विराट था. सो नेहरु और कांग्रेस के अन्य महान नेताओं की विरासत को देखते हुए इसमें कोई शक नहीं कि पार्टी उन दिनों जाति और समुदाय की सीमाओं से परे थी. गांधी से प्रभावित नेहरु का राजनीतिक दर्शन तंग दायरों की कैद से सचमुच आजाद था.

नेहरु-युग के बाद के वक्त में जाति कठोर सियासी सच्चाई बनकर उभरी और इसके बाद से ही कांग्रेस संप्रदायों की खींचतान में ऐसे उलझी कि देश की सियासी रंग-रेखा ही बदल गई. पार्टी का नेतृत्व अगड़ी जाति के एक मजबूत धड़े के इर्द-गिर्द सिमट गया और यह धड़ा दशकों तक दलित और अल्पसंख्यकों का हमदर्द होने का दिखावा करता रहा. लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग पर कांग्रेस के असर को राममनोहर लोहिया से दमदार चुनौती मिली. तमिलनाडु और केरल में कांग्रेस की जमीन अन्नादुरै और सीपीएम के हाथ में खिसक गई, दोनों ने वंचित और अल्पसंख्यक तबके को अपनी ओर खींच लिया.

सन् 1970 के दशक से कांग्रेस का सियासी सफर दरअसल समाज में मौजूद आपसी अलगाव को अपने हक में भुनाने का सफर रहा है. सन् 1970 और 1980 के दशक में देश में दंगे हुए लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि दंगाई भीड़ के खिलाफ इंदिरा गांधी या कांग्रेस का कोई अन्य नेता डटकर खड़ा हुआ हो जबकि गांधी और नेहरु अपनी जान की परवाह ना करते हुए हत्यारी भीड़ के मुकाबिल खड़े होते थे. आजादी के तुरंत बाद नोआखाली (बंगाल, अब बांग्लादेश) और दिल्ली में ऐसा ही हुआ था.

जांति और संप्रदाय को बांटकर सत्ता का खेल

अपने सांप्रदायिक रंगों में एकदम जाहिर देश का पहला चुनाव 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ. राहुल के पिता राजीव गांधी को इसका भरपूर फायदा हुआ. इसका बाद इसी चलन पर एक और आजमाइश हुई और अयोध्या में 1987 में रामजन्मभूमि मंदिर का ताला खोल दिया गया. इसके पीछे जाहिर सी मंशा हिन्दुओं को अपने पीछे लामबंद करने की थी और मान लिया गया था कि मुस्लिम तो किसी और पार्टी के पीछे जाएंगे नहीं. लेकिन पार्टी की उम्मीद झूठी साबित हुई. बहरहाल, इस घटना से यह साफ जाहिर हो गया कि कांग्रेस समाज को जाति और संप्रदाय के दायरों में बांटकर पूरे पागलपन के साथ सत्ता का खेल खेलने में लगी है.

लेकिन आज तस्वीर बदल चुकी है. कांग्रेस को सत्ता के खेल में अन्य राजनीतिक दलों, खासकर क्षेत्रीय दलों ने पटखनी दी है और समाजविज्ञानी रजनी कोठारी का वह सूत्रीकरण गलत साबित हुआ है कि जाति की सियासत जातियों का राजनीतीकरण करेगी. उत्तर भारत में क्षेत्रीय दलों की जाति की राजनीति के कारण जाति और समुदायों का हद दर्जे का लठैती भरा सशक्तीकरण हुआ है और शायद ही कोई पार्टी बची है जिसने अपने को इस रोग से बचाकर रखा हो. यहां तक कि हिंदुत्व की राजनीति भी जाति के कामयाब गठजोड़ के बूते आगे बढ़ रही है. हां, यह बात भी सही है कि यूपी और बिहार में मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे कद्दावर नेताओं का उभार दलित और ओबीसी जातियों के दावेदारी के कारण मुमकिन हो पाया है.

बीजेपी भी हिंदू समाज को गोलबंद करने के लिए जाति की जोड़-तोड़ की राह पर

बीजेपी भी इसी राह पर है, उसने हिंदुत्व की राजनीति का दामन थामा है साथ ही वह जाति समूहों को अपने पाले में खींचने की जी-तोड़ कोशिश करती है. बीजेपी ने हिंदू समाज को गोलबंद करने के एक ताकतवर उपाय के तौर पर मैदान में ओबीसी के नेता उतारे हैं. ठेठ यही कारण है जो मोदी को लेकर बना ‘चायवाला’ का मुहावरा हमेशा यह जताने के लिए इस्तेमाल होगा कि बीजेपी जितनी ओबीसी जातियों की पार्टी है उतनी ही अगड़ी जातियों की भी. मौजूदा सियासी चौहद्दी के भीतर बीजेपी मानकर चल रही है कि मुस्लिम राजनीतिक तस्वीर से बाहर हैं, भले ही पार्टी ने इस बात को खुले तौर पर जाहिर नहीं किया हो.

ऐसी कठोर सच्चाई को भांप कांग्रेस उत्तर भारत में जातिवादी राजनीति करने वाले समूहों के साथ हाथ मिलाने को मजबूर हुई है. राहुल के मन में मायावती, अखिलेश और लालू यादव के प्रति प्यार उमड़ा है तो उसकी वजह ये है कि इन नेताओं का कुछ जाति समूहों पर अख्तियार चलता है. गुजरात और कर्नाटक में राहुल गांधी ने ‘नरम हिंदुत्व’ की राह पकड़ी, मंदिरों के चक्कर काटे और जाति का संतुलन साधने के लिए जिग्नेश मेवाणी और हार्दिक पटेल के साथ दोस्ती गांठी. राहुल का ट्वीट भले ही किसी पैगंबर के मुंह से निकला हुआ प्रवचन जान पड़ता हो लेकिन उस प्रवचन के पीछे की बदसूरत सच्चाई यही है.

मसीहाई अंदाज अपनाने की जगह राहुल अगर राजनीति के मैदान में राजनीतिक तौर-तरीकों के साथ पेश आएं तो उनकी आगे की राह आसान होगी. राहुल को भले पता ना हो लेकिन लोग जानते हैं कि राजनीति कोई पुण्य कमाने का खेल नहीं है.