सीडबल्यूसी राजनैतिक गुरु को भूले शिष्य


आखिर दिग्विजय सिंह CWC की टीम के लिये यो-यो टेस्ट में फेल क्यों कर दिये गये?


राहुल के ‘राजनीतिक गुरु’ का तमगा अगर किसी को मिला है तो वो सिर्फ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्गी राजा यानी दिग्विजय सिंह ही हैं. दिग्विजय सिंह ने ही सबसे पहले राहुल को पीएम और अध्यक्ष बनाने की मांग को ‘गूंज’ बनाने का काम किया था.

केंद्र में यूपीए की सरकार थी. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो दिग्विजय सिंह कांग्रेस महासचिव थे. दिग्विजय सिंह ने उस वक्त ये कह कर सियासी तूफान पैदा कर दिया था कि राहुल को अब देश का पीएम बना देना चाहिये. हालांकि बाद में उन्होंने अपने बयान को सुधारने की कोशिश भी की और कहा कि मनमोहन सिंह भी अच्छे प्रधानमंत्री हैं.

लेकिन ये विडंबना ही रही कि जब राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिये नामांकन भरा तब दिग्विजय सिंह गैर मौजूद थे. दिग्विजय सिंह उस वक्त नर्मदा यात्रा पर थे.

अब जबकि राहुल को नई टीम बनाने का मौका मिला तो उस टीम में भी दिग्विजय सिंह गैर मौजूद हैं. ऐसा भी नहीं राहुल के टीम सेलेक्शन में उम्र का कोई पैमाना रखा गया हो. कांग्रेस वर्किंग कमेटी की नई टीम में मोतीलाल वोरा जैसे कई नेताओं को बढ़ती उम्र के बावजूद अनुभव की वजह से तरजीह दी गई है.

ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि टीम में दिग्विजय सिंह को एक्स्ट्रा की भी जगह क्यों नहीं मिली?  दिग्विजय सिंह जो कभी खुद कांग्रेस में सेलेक्टर की भूमिका में हुआ करते थे, जो टीम के कोच और खिलाड़ी तक तय करने का माद्दा रखा करते थे, उन्हें ही बाहर कैसे कर दिया गया? आखिर दिग्विजय सिंह CWC की टीम के लिये यो-यो टेस्ट में क्यों फेल कर दिये गये ?

दिग्विजय सिंह ने ही राहुल को राजनीति का ककहरा सिखाने का काम किया है. लेकिन ऐसी गुरु-दक्षिणा की उम्मीद उन्हें भी नहीं रही होगी.

राहुल आज कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. वो युवाओं और दलितों को पार्टी की अगली पंक्ति पर बिठाना चाहते हैं. कांग्रेस अधिवेशन में स्टेज को खाली छोड़ा गया था. सारे दिग्गज स्टेज के नीचे बैठे थे. इसके जरिये ये संदेश दिया गया कि अब कांग्रेस का भविष्य युवा तय करेंगे यानी पुरानी पीढ़ी के लोगों को सम्मान तो मिलेगा लेकिन कमान नहीं. राहुल ने युवाओं से आगे आ कर जिम्मेदारी उठाने का आह्वान किया था.

लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमेटी के गठन में दिग्विजय सिंह का वरिष्ठता के बावजूद सम्मान आहत हुआ है. शायद राहुल उन दिनों को भूल गए जब दिग्विजय सिंह उन्हें राजनीतिक दीक्षा देने के लिये दिन-रात साये की तरह साथ होते थे.

राहुल गांधी उस वक्त पार्टी में नंबर दो की भूमिका में थे. तब दिग्वजिय सिंह अपने राजनीतिक अनुभव की भट्टी में राहुल को तपा कर नए दौर की राजनीति के सांचे में ढालने में जुटे हुए थे. राहुल के साथ तमाम दौरों में दिग्विजय सिंह साथ रहते थे. किसी प्रोफेशनल कैमरामेन की तरह वो राहुल के फोटोग्राफ भी खींचते रहते थे. भट्टा-परसौल गांव में किसानों के आंदोलन में राहुल के उतरने के पीछे दिग्विजय सिंह की ही रणनीति थी.

वो दौर दिग्विजय सिंह के स्वर्णिम दौर में से एक माना जा सकता है. बिना किसी बड़े पद के बावजूद उनकी हैसियत गांधी परिवार के करीबियों में से थी. राजनीतिक तौर पर भी उनके पास एक साथ तीन-तीन राज्यों का प्रभार हुआ करता था. उनका पार्टी में कद इतना बढ़ चुका था कि उनके बयानों को पार्टी लाइन भी माना जाने लगा था. पी. चिंदबरम के नक्सलियों पर दिये गये बयान को खारिज करने की हिम्मत भी दिग्विजय सिंह ने ही दिखाई थी. नक्सली समस्या पर तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम की राय को दिग्विजय सिंह ने ही खारिज किया था.

दरअसल बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ दिग्विजय सिंह की आक्रमकता ही कांग्रेस की बड़ी ताकत हुआ करती थी. दिग्विजय सिंह अपने बयानों से नरेंद्र मोदी, बीजेपी और आरएसएस पर हमले करने में सबसे आगे रहते थे. साल 2014 में तत्कालीन पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ उनके आक्रामक हमलों के चलते ही ये अफवाह भी गर्म थी कि बनारस से दिग्विजय सिंह को मोदी के खिलाफ मैदान में उतारा जा सकता है.

दिग्विजय सिंह का कद राजनीति में उनके पदार्पण के साथ ही बड़ा था. 1977 में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद वो पहली दफे विधायक का चुनाव जीते थे. मध्यप्रदेश में लगातार दस साल तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड भी बनाया था.

लेकिन एक दिन उन्हें भी अहसास होने लगा कि वो डूबता सूरज हो चले हैं. राहुल जब नंबर दो की स्थिति से अघोषित नंबर 1 की स्थिति में आते चले गए तो दिग्विजय सिंह के साथ उनकी दूरियां भी दिखने लगीं. आज दिग्विजय सिंह के विवादास्पद बयानों से पार्टी इत्तेफाक नहीं रखती है. बीजेपी और आरएसएस पर उनके हमलों को पार्टी का साथ नहीं मिलता है.

ऐसा लगता है कि शायद राहुल ने अपने गुरु की ‘मन की बात’ को एक साल बाद सुन ही लिया. एक साल पहले दिग्वजिय सिंह ने कहा था कि, ‘राहुल को एआईसीसी के पुनर्गठन के फैसले में देर नहीं करनी चाहिये और अगर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को एआईसीसी से हटाने का सख्त फैसला लेना पड़ता है तो सबसे पहले मुझे हटाएं.’  इसी के बाद ही दिग्विजय सिंह के कांग्रेस में दिन फिरने लगे.  पहले उनसे गोवा और कर्नाटक का प्रभार बहाने से ले लिया गया तो अब सीडब्लूसी  की टीम में भी जगह नहीं मिली.

सवाल उठता है कि क्या जानबूझकर दिग्विजय सिंह की अनदेखी हुई है या फिर उन्हें मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जाने वाली है?

बहरहाल सवाल तो उठेंगे क्योंकि सवाल बीजेपी पर भी उठे हैं. सवाल उठाने वाले खुद दिग्विजय सिंह भी रहे हैं जो ‘मार्गदर्शक मंडल’ को लेकर बीजेपी पर निशाना बनाते थे. लेकिन आज अपने राजनीतिक अनुभव और वाकचातुर्य के बावजूद वो कांग्रेस के टॉप 51 लोगों में जगह नहीं बना सके. क्या वाकई दिग्गी राजा का राजनीतिक सूरज अब ढलने की दिशा में है?

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