Monday, December 23


एक आम आदमी के रूप में अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सड़कों पर अपनी राजनीति की शुरुआत में बिजली कंपनियों की मनमानी के खिलाफ पावर की लड़ाई लड़ी तो अब आम आदमी पार्टी के लिये एलजी के खिलाफ पावर की लड़ाई जीती


पिछले महीने अचानक ही दिल्ली समेत देश की राजनीति में एकदम नए ढंग के धरने ने धमाल मचा दिया. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल उपराज्यपाल के दफ्तर पर हल्ला बोल देते हैं. वो अपनी कैबिनेट के 4 मंत्रियों के साथ सोफे पर विराजमान हो जाते हैं. धरना दे रहे दो मंत्री दो कदम आगे चलते हुए भूख हड़ताल पर बैठ जाते हैं. केजरीवाल एंड टीम की मांग होती है कि दिल्ली सरकार के कामों का बायकॉट करने वाले अधिकारियों के खिलाफ एलजी कड़ी कार्रवाई करें तो साथ ही राशन की डोर स्टेप योजना की फाइल को आगे बढ़ाएं. केजरीवाल की ‘स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स’ पर बारीक नजर रखने वाले विरोधी ‘धरना मैन रिटर्न्स’ और ‘नौटंकी’ जैसे शब्दबाणों से प्रहार शुरू कर देते हैं. केजरीवाल की मांगों को राजनीतिक स्टंट और ड्रामा बताया जाता है. यहां तक कि दिल्ली हाईकोर्ट भी एलजी ऑफिस में केजरीवाल के धरने को असंवैधानिक करार देते हुए पूछ लेती है कि केजरीवाल को धरने की अनुमति किससे मिली?

केजरीवाल का धरना सियासी स्टंट के चश्मे से देखा जाता है. बीजेपी-कांग्रेस के दो तरफा हमले होते हैं और उन सबके बीच उपराज्यपाल दिल्ली के सीएम की मांगों को अनसुना कर देते हैं. केजरीवाल आरोप लगाते हैं कि उपराज्यपाल अनिल बैजल इन 9 दिनों में उनसे बात करने के लिये 9 मिनट का समय भी नहीं निकाल पाए. लेकिन इस टीस के साथ धरना खत्म करने वाले केजरीवाल ने भी शायद ये कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी एक अपील कहीं पर गौर से सुनी जाने वाली है और दिल्ली के एलजी के साथ प्रशासनिक अधिकारों के लेकर चल रही खींचतान पर उनकी याचिका की गंभीरता से विवेचना होने वाली है.

दरअसल दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में उपराज्यपाल अनिल बैजल को  दिल्ली का प्रशासनिक हेड बताया था. जिसके बाद दिल्ली सरकार ने जब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो उसे पावर का बोनस भी मिल गया. सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से केजरीवाल को एक तरह से हस्तिनापुर के रण के लिये कर्ण का कुंडल-कवच मिल गया.

अब केजरीवाल को सत्ता चलाने के लिए तीन वरदान मिल चुके हैं. उनकी सलाह मानने के लिये उपराज्यपाल बाध्य होंगे. अभी तक अरविंद केजरीवाल को अपने हर फैसले के लिये उपराज्यपाल की मंजूरी लेनी पड़ती थी लेकिन अब केजरीवाल अपने फैसले के मालिक-मुख्तार खुद होंगे. केजरीवाल की सबसे बड़ी शिकायत ये रहती आई है कि दिल्ली के अधिकारी और कर्मचारी उनके आदेशों को तामील नहीं करते हैं.

लेकिन अब ट्रांसफर-पोस्टिंग की पावर हाथ में आने के बाद केजरीवाल अपने महत्वपूर्ण विभागों में मर्जी के अधिकारी-कर्मचारी बिठा सकेंगे. अब केजरीवाल एंटी करप्शन ब्यूरो में अपने पसंद के अधिकारी को मुखिया बना सकेंगे. ट्रांसफर-पोस्टिंग के जरिये ही वो आईएएस अफसर और कर्मचारियों पर भी नकेल कस सकेंगे.

भले ही अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने में किसी आम आदमी की तमाम उम्र बीत जाती हो लेकिन आम आदमी पार्टी को अपने अधिकार हासिल करने में साढ़े तीन साल का ही वक्त लगा. कह सकते हैं कि दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी के ‘अच्छे दिन’ आ गए हैं.

केजरीवाल अब विरोधियों से कह सकते हैं कि उनके पास सत्ता है, पावर है, पैसा है और पॉलिटिक्स के नए-नए स्टंट हैं.  केजरीवाल कह सकते हैं, ‘पहले तुम बोलते थे और मैं सुनता था. अब मैं बोलूंगा और तुम सुनोगे. केजरीवाल अब अधिकारियों से ये भी कह सकते हैं कि ‘फाइल भेजी है….साइन इट’.

बहरहाल एक आम आदमी के रूप में अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सड़कों पर अपनी राजनीति की शुरुआत में बिजली कंपनियों की मनमानी के खिलाफ पॉवर की लड़ाई लड़ी तो अब आम आदमी पार्टी के लिये एलजी के खिलाफ पावर की लड़ाई जीती. लेकिन इन दोनों ही लड़ाइयों के केंद्र में केवल सत्ता ही थी. अब बड़ा सवाल ये है कि केजरीवाल तय समय में अपने वादों को पूरा करने की चुनौती से किस तरह पार पा सकेंगे? क्योंकि पहले तो ये कह कर दिल्ली की जनता को समझा लिया गया, ‘हम काम करते रहे और ये परेशान करते रहे’.

लेकिन अब जब दिल्ली सरकार को तमाम प्रशासनिक शक्तियां मिल चुकी हैं तो फिर कोई भी आरोप, बहाना या धरना काम नहीं आएगा क्योंकि एक हवा चली  है कि दिल्ली सरकार की दिल्लीवासियों के लिये बड़ी जीत हुई है. ऐसे में अब केजरीवाल एंड टीम भविष्य में किसी मुद्दे पर केंद्र सरकार या फिर उपराज्यपाल को इतनी आसानी से कटघरे में खड़ा नहीं कर सकेगी.

अब दिल्ली सरकार पर जनता की उम्मीदों की वजह से लटकती तलवार है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि जब बिना पावर के आम आदमी पार्टी पर इतने अराजक होने के आरोप लगते रहे हों तो फिर पावर आने के बाद शक्तियों के गैरवाजिब इस्तेमाल न होने की गारंटी कौन लेगा?