नितीश- प्रशांत कि जुगलबंदी क्या रंग दिखाती है?


बिहार में जेडीयू और बीजेपी के बीच चल रही तनातनी के बीच 8 जुलाई को जेडीयू राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने अध्यक्षीय भाषण से नीतीश बीजेपी को भी संदेश दे सकते हैं


आठ जुलाई को दिल्ली में जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सबकी नजरें पार्टी अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाषण पर होंगी. उनका अध्यक्षीय भाषण पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को संदेश तो देगा ही, लेकिन, उससे निकलने वाला संदेश सहयोगी बीजेपी के लिए भी होगा.

ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि बिहार में बीजपी के साथ मिलकर सरकार चला रहे नीतीश कुमार पिछले कुछ महीनों से असहज महसूस कर रहे हैं. विशेष राज्य के दर्जे के मसले को फिर से उठाकर नीतीश कुमार ने बिहारी अस्मिता को फिर हवा दी है. बीजेपी के साथ दोबारा हाथ मिलाने के बाद कुछ वक्त के लिए यह मुद्दा ठंढ़े बस्ते में चला गया था. लेकिन, अब एक बार फिर से इस मुद्दे पर महाभारत के आसार लग रहे हैं.

जेडीयू कार्यकारिणी की बैठक में इस मुद्दे को लेकर भी प्रस्ताव पास हो सकता है. कार्यकारिणी की बैठक के बाद विशेष राज्य के दर्जे के मुद्दे को लेकर धरना- प्रदर्शन की भी तैयारी हो रही है.

जेडीयू-बीजेपी के रिश्तों में कड़वाहट

इसके पहले ही जेडीयू और बीजेपी के कई नेताओं की तरफ से लोकसभा चुनाव को लेकर सीटों की संख्या के मुद्दे पर बयानबाजी देखने को मिली थी. बीजेपी के नेता रह-रह कर पिछले चुनाव में जीती सभी 22 सीटों पर अपना दावा करते रहे हैं. दूसरी तरफ जेडीयू 2009 के फॉर्मूले के हिसाब से सीटों के बंटवारे की बात कर रही है जिस वक्त वो 25 सीटों पर चुनाव लड़ती थी.

जेडीयू के सुप्रीमो बीजेपी नेताओं की इसी बयानबाजी से नाराज हैं. सूत्रों के मुताबिक, नीतीश कुमार की नाराजगी बिहार में सरकार के भीतर बीजेपी की बढ़ती दखलंदाजी से है. क्योंकि नीतीश कुमार एनडीए-1 में जिस अधिकार और जिसे निर्णायक भूमिका में होते थे, उस तरह चाहकर भी नहीं कर पा रहे हैं.

रामनवमी जुलूस के दौरान बवाल से हुई शुरुआत

उनकी नाराजगी इस साल रामनवमी जुलूस के दौरान हुए हंगामे को लेकर भी है. उन्हें लगता है कि इस हंगामे और बीजेपी नेताओं के बयानों से उनकी छवि खराब हुई है. इस दौरान केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे का मामला हो या फिर गिरिराज सिंह और बीजेपी अध्यक्ष नित्यानंद राय का बयान, इन सबसे नीतीश कुमार अपने-आप को असहज महसूस करते रहे हैं.

इसके बाद ही कई मौकों पर उनकी तरफ से करप्शन और कम्युनलिज्म से समझौता नहीं करने का बयान भी दिया जा रहा है. नीतीश कुमार के बयानों से साफ लगता है कि बिहार में जिस निर्णायक भूमिका में वो अपने-आप को चाह रहे थे, उस निर्णायक भूमिका में वो काम नहीं कर पा रहे हैं.

ऐसे माहौल में दिल्ली में सात जुलाई को पार्टी पदाधकारियों की बैठक और फिर अगले दिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पर सबकी नजरें टिक गई हैं. क्या नीतीश कुमार इस दिन दिल्ली से दिल्ली सरकार को कोई संदेश देंगे?

घड़ी की सुई फिर वहीं आ टिकी?

एक बार फिर से घड़ी की सुई घूमकर उसी जगह पर आकर टिक गई है. लगभग पांच साल पहले अप्रैल 2013 में नीतीश कुमार ने दिल्ली के मावलंकर हॉल में पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए बीजेपी पर हमला बोला था. नीतीश ने साफ कर दिया था कि ‘सत्ता के लिए कभी टीका भी लगाना पड़ता है तो कभी टोपी भी पहननी पड़ती है.’ नाम लिए बगैर नीतीश कुमार ने उस वक्त नरेंद्र मोदी पर हमला बोला था. उसके कुछ ही दिनों बाद नीतीश कुमार ने बीजेपी से नाता तोड़ने का फैसला कर लिया था.

अब एक बार फिर दिल्ली में ही पार्टी का अधिवेशन हो रहा है. ऐसे में एनडीए में असहज नीतीश के अध्यक्षीय भाषण पर सबकी नजरें होगी. इस भाषण से भविष्य के कदम का संकेत देखने को मिल सकता है.

जेडीयू के साथ फिर से प्रशांत किशोर

जेडीयू के भीतर भी इन दिनों हलचल तेज हो गई है. सूत्रों के मुताबिक, चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर की सक्रियता एक बार फिर से बढ़ गई है. चुनाव की तैयारी और सलाहकार की भूमिका में प्रशांत किशोर का आना इस बात का संकेत है कि अब जेडीयू एक बार फिर से आक्रामक तेवर के साथ लोकसभा चुनाव की तैयारियों में लग गई है.

हालाकि सूत्र बता रहे हैं कि प्रशांत किशोर ने कुछ महीने पहले बीजेपी के भीतर अपनी भूमिका की तलाश की थी. 2014 में बीजेपी के लिए चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी संभालकर प्रशांत किशोर हीरो बनकर उभरे थे. लेकिन, इस बार बीजेपी नेताओं के साथ मुलाकात के बाद उनको साफ कर दिया गया कि उन्हें पार्टी के स्ट्रक्चर के दायरे में रहकर ही काम करना होगा.

सूत्रों के मुताबिक, इसी के बाद प्रशांत किशोर ने जेडीयू का दरवाजा खटखटाया. हालाकि, वहां भी प्रशांत किशोर बिहार सरकार में अपने लिए बड़ी भूमिका और बड़ा ओहदा चाह रह थे. लेकिन, बात वहां भी नहीं बनी तो अब जेडीयू के चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी को संभाल रहे हैं.

क्या साथ आएंगे जेडीयू-कांग्रेस?

सूत्रों के मुताबिक, अगर बीजेपी के साथ जेडीयू के रिश्तों में तनातनी जारी रहती है तो फिर जेडीयू और कांग्रेस करीब आ सकते हैं. नीतीश कुमार की कोशिश एलजेपी को भी साधने की हो सकती है. रामविलास पासवान को लेकर नीतीश कुमार का नरम रवैया इस बात संकेत भी दे रहा है.

फिलहाल एलजेपी अपने पत्ते नहीं खोलना चाहती. अपने जन्मदिन के मौके पर केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने एनडीए के सभी घटक दलों से बातकर किसी भी तरह के विवाद को सुलझा लेने की बात की. पासवान कोई भी निर्णय लेने से पहले अपने नफा-नुकसान का आकलन कर लेना चाहेंगे.

जेडीयू के एक वरिष्ठ नेता ने फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत के दौरान बताया ‘अगर बीजेपी 40 में से 22 जीती हुई सीटों पर लड़ेगी, एलजेपी 6 जीती हुई सीटों पर लडेगी और आरएलएसपी तीन जीती हुई सीटों पर लड़ेगी, तो क्या जेडीयू महज 6-7 बची हुई सीटों पर ही चुनाव लड़ेगी? क्या ऐसा संभव है? क्या बीजेपी इस बात को नहीं समझ रही है? अगर यही फॉर्मूला है तो फिर विधानसभा चुनाव में क्या होगा? क्या बीजेपी 243 में से 55 जीती हुई सीटों पर चुनाव लड़ने को राजी हो जाएगी?’

जेडीयू नेता ने दावा किया कि इसी बात को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नाराज हैं. उन्हें बीजेपी नेताओं के बयान और उनकी तरफ से बनाए जा रहे दबाव के संकेत उन्हें किसी विकल्प के बारे में सोंचने पर मजबूर कर सकते हैं.

नीतीश के फोनकॉल के बाद से ही अटकलें

नीतीश कुमार की तरफ से लालू यादव को स्वास्थ्य संबंधी हालचाल को किया गया कर्टसी कॉल बैकफायर कर गया था. उस वक्त तेजस्वी के तेवर ने जेडीयू-आरजेडी के बीच किसी भी तरह की दोबारा साथ आने की अफवाहों तक को खारिज कर दिया.

नीतीश कुमार अगर इसके बावजूद भी बीजेपी से अलग राह चलने का कोई फैसला कर लें तो इसमें आश्चर्य नहीं होगा. करप्शन और कम्युनलिज्म से बराबर की दूरी का रास्ता बिहार में फिर से एक तीसरे विकल्प को हवा दे सकता है. कांग्रेस की भूमिका इसमें अहम हो सकती है.

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के 12 जुलाई के बिहार दौरे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी मुलाकात होनी तय है. लेकिन, इस मुलाकात की पटकथा और मुलाकात की संभावना नीतीश के दिल्ली दौरे से ही तय होगी. इसीलिए नीतीश के दिल्ली दौरे और जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को निर्णायक माना जा रहा है.

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