पत्थलगढ़ी आंदोलन : जानें कैसे उभरा आंदोलन और कहां तक इसका असर
हाइलाइट्स:
- पत्थलगड़ी के तहत आदिवासी समाज के लोग अपने इलाके में पत्थर गाड़कर सीमा तय करते हैं और उसे स्वायत्त क्षेत्र मानते हैं
- 2018 में पूर्व लोकसभा स्पीकर कड़िया मुंडा के गांव में भी पत्थलगड़ी के विरोध पर हुई थी हिंसा
- पत्थलगड़ी का केंद्र गुजरात के तापी जिला का कटास्वान नामक स्थान है। यह गुजरात और महाराष्ट्र के बॉर्डर का भील आदिवासी बहुत इलाका है
सारिका तिवारी, चंडीगढ़ :
झारखंड का पश्चिमी सिंहभूम ज़िला. नक्सल प्रभावित गुदड़ी ब्लॉक। यहां के बुरुगुलीकेरा गांव में सात लोगों की हत्या कर दी गई। आरोप है कि पत्थलगड़ी आंदोलन के समर्थकों ने उनकी हत्या की। इन लोगों का पहले अपहरण कर लिया गया था। घटना 19 जनवरी, रविवार की है लेकिन पुलिस 20 जनवरी को पहुंची. लोगों के शव गांव से सात किलोमीटर दूर मिले। 22 जनवरी को. पुलिस का कहना है इनके सिर कटे हुए थे और मौके से कुल्हाड़ी भी मिली है। पुलिस का कहना है कि पत्थलगड़ी के बहाने आपसी दुश्मनी निकाली गई है। शवों को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया गया है. पुलिस ने गांव में कैंप कर रखा है सर्च अभियान चल रहा है. तनाव का माहौल है. मामले में अब तक तीन लोगों की गिरफ्तारी हुई है। – जनवरी 23, 2020
पत्थलगड़ी क्या है?
पत्थलगड़ी आदिवासियों की एक परंपरा है। इसके तहत अगर आदिवासी इलाके में कोई भी उल्लेखनीय काम होता है, तो आदिवासी उस इलाके में एक बड़ा सा पत्थर लगा देते हैं और उस पर उस काम को दर्ज कर देते हैं। अगर किसी की मौत हो जाए या फिर किसी का जन्म हो तो आदिवासी पत्थर लगाकर उसे दर्ज करते हैं। इसके अलावा अगर उनके इलाके का कोई शहीद हो जाए या फिर आजादी की लड़ाई में कोई शहीद हुआ हो, तो इलाके के लोग उसके नाम पर पत्थर लगा देते हैं। अगर कुछ आदिवासी लोग मिलकर अपने लिए कोई नया गांव बसाना चाहते हैं, तो वो उस गांव की सीमाएं निर्धारित करते हैं और फिर एक पत्थर लगाकर उस गांव का नाम, उसकी सीमा और उसकी जनसंख्या जैसी चीजें पत्थर पर अंकित कर देते हैं। इस तरह के कुल आठ चीजों में पत्थलगड़ी की प्रथा रही है और ये प्रथा कई सौ सालों से चली आ रही है।
पत्थलगड़ी का शाब्दिक अर्थ होता है वन क्षेत्र। यानी वो इलाका जो जंगलों से घिरा है। झारखंड भारत का 28वां राज्य है, जो 15 नवंबर, 2000 से अस्तित्व में है। ये एक आदिवासी बहुल राज्य है। यहां पर आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुंडा, हो और संथाल जनजातियों का है। इन जनजातियों की अपनी कुछ परंपराएं हैं, जो सदियों से चली आ रही हैं. पत्थलगड़ी भी उनमें से एक है।
गांवों में घुसने पर रोक लगाई
1845 में अंग्रेजों के आने के बाद इस आदिवासी बहुल राज्य की एक बड़ी आबादी ने ईसाई धर्म अपना लिया, लेकिन उन्होंने अपनी परंपराओं को बनाए रखा। वहीं कोयला, लोहा, बाक्साइट, तांबा और चूना पत्थर जैसे खनिजों की भरमार की वजह से पूरा इलाका सरकारी और निजी कंपनियों के निशाने पर भी रहा। सरकार हो या निजी कंपनी, उन्होंने इन खनिजों का दोहन तो किया, लेकिन उन्होंने इस पूरे इलाके का उस तरह से विकास नहीं किया, जैसा होना चाहिए था। अब भी स्थिति ये है कि झारखंड के अधिकांश इलाकों में न तो सड़क है, न बिजली है और न पीने का साफ पानी। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी चीजें तक आदिवासियों के लिए दूर की कौड़ी हैं। ऐसे में आदिवासियों ने अपनी सैकड़ों साल पुरानी पत्थलगड़ी परंपरा का सहारा लिया है, जिसके बाद प्रशासन और आदिवासियों के बीच ठन गई है। आदिवासियों ने पत्थलगड़ी के जरिए गांवों में बाहरी लोगों के घुसने पर रोक लगा दी है। सरकारी शिक्षा का विरोध कर दिया है। खुद की करेंसी लाने की बात कर रहे हैं और केंद्र सरकार और राज्य सरकार के कानूनों को खुले तौर पर चुनौती दे रहे हैं। सरकार भी इन्हें सख्ती से निपटने की बात कह तो रही है, लेकिन अभी तक ऐसी कोई भी बड़ी कार्रवाई नहीं हुई है।
क्या कहता है भारतीय संविधान
भारतीय संविधान 25 भागों में बंटा है, जिसमें 12 अनुसूचियां और 448 अनुच्छेद हैं. इन्हीं के सहारे पूरा देश चलता है। इस संविधान में पांचवी और छठी अनुसूची आदिवासी इलाकों से जुड़ी हुई है। अनुसूची पांच आदिवासी इलाकों में प्रशासन और नियंत्रण की व्याख्या करता है। वहीं अनुसूची छह असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के लिए निर्धारित है, जिसके तहत वहां का कानून चलता है और ये तय करता है कि वहां पांचवी अनुसूची का कानून लागू नहीं होगा। पांचवी अनुसूची उसी इलाके में लागू होगी, जहां की जनसंख्या का 50 फीसदी से अधिक आदिवासी जनसंख्या है। झारखंड में आदिवासी फिलहाल संविधान की पांचवी अनुसूची के हवाले से ही पत्थलगड़ी कर रहे हैं। पांचवी अनुसूची में अनुच्छेद 244 (1) का जिक्र किया गया है। इसके तहत लिखा है-
- इस इलाके में संसद और विधानसभा की ओर से पारित कानूनों को लागू करने का अधिकार राज्यपाल के पास है। वो उन कानूनों को यहां लागू करवा सकता है, जो इन इलाकों के लिए बेहतर हों।
- यह अनुच्छेद राज्यपाल को शक्ति देता है कि वो इस इलाके की बेहतरी और शांति बनाए रखने के लिए कानून बनाए।
- पांचवी अनुसूची में ट्राइब्स एडवाइजरी काउंसिल बनाने का प्रावधान है। इसके तहत इसमें अधिकतम 20 सदस्य हो सकते हैं। इसके तीन चौथाई सदस्य यानी अधिकतम 15 सदस्य अनुसूचित जनजाति के निर्वाचित विधायक होते हैं। अगर उनकी संख्या इतनी नहीं है, तो फिर दूसरे विधायकों के जरिए इस काउंसिल के सदस्य बनाए जा सकते हैं। इसके लिए भी राज्यपाल के पास ये शक्ति है कि वो इस काउंसिल के लिए नियम बना सके, उनके सदस्यों की संख्या निर्धारित कर सके और इस काउंसिल के लिए चेयरमैन का चुनाव कर सके।
क्या है पत्थलगड़ी
संविधान की पांचवीं अनुसूची में मिले अधिकारों के सिलसिले में झारखंड के खूंटी और पश्चिमी सिंहभूम जिले के कुछ इलाकों में पत्थलगड़ी कर (शिलालेख) इन क्षेत्रों की पारंपरिक ग्राम सभाओं के सर्वशक्तिशाली होने का ऐलान किया गया था। कहा गया कि इन इलाकों में ग्राम सभाओं की इजाजत के बगैर किसी बाहरी शख्स का प्रवेश प्रतिबंधित है। इन इलाकों में खनन और दूसरे निर्माण कार्यों के लिए ग्राम सभाओं की इजाजत जरूरी थी। इसी को लेकर कई गांवों में पत्थलगड़ी महोत्सव आयोजित किए गए। इस कार्यक्रम में हजारों आदिवासी शामिल हुए।
जून 2018 में पूर्व लोकसभा स्पीकर कड़िया मुंडा के गांव चांडडीह और पड़ोस के घाघरा गांव में आदिवासियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़पें हुईं। पुलिस फायरिंग में एक आदिवासी की मौत हो गई। वहीं पुलिस ने कई जवानों के अपहरण का आरोप लगाया। बाद में जवान सुरक्षित लौटे। इस संबंध में कई थानों में देशद्रोह की एफआईआर दर्ज हुई थी। हालांकि हेमंत सोरेन ने सीएम बनते ही पहली कैबिनेट बैठक में 2017-18 के पत्थलगड़ी आंदोलन में शामिल लोगों पर दर्ज मुकदमे वापस ले लिए हैं।
आदिवासियों के बीच गांव और जमीन के सीमांकन के लिए, मृत व्यक्ति की याद में, किसी की शहादत की याद में, खास घटनाओं को याद रखने के लिए पत्थर गाड़ने का चलन लंबे वक्त से रहा है। आदिवासियों में इसे जमीन की रजिस्ट्री के पेपर से भी ज्यादा अहम मानते हैं। इसके साथ ही किसी खास निर्णय को सार्वजनिक करना, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने के लिए भी पत्थलगड़ी किया जाता है। यह मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदिवासियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है।
जब एसपी समेत 300 पुलिसकर्मी बने बंधक
साल 2017 के अगस्त महीने में खूंटी जिले में पत्थलगड़ी की सूचना पाकर पुलिस पहुंची। वहां गांववालों ने बैरिकेडिंग कर रखी थी। थानेदार जब कुछ पुलिसबल के साथ वहां पहुंचे तो उन्हें बंधक बना लिया गया। सूचना पाकर जिले के एसपी अश्विनी कुमार लगभग 300 पुलिसकर्मियों को लेकर उन्हें छुड़ाने पहुंचे तो उन्हें भी वहां बंधक बना लिया गया। लगभग रातभर उन्हें बिठाए रखा, सुबह जब खूंटी के जिलाधिकारी वहां पहुंचे तब लंबी बातचीत के बाद गांववालों ने उन्हें छोड़ा। इसके बाद मामले ने तूल पकड़ लिया। फिर झारखंड में हुई हत्याओं ने एक बार फिर इसकी ओर ध्यान खींचा।
खूंटी में दर्ज 19 मामले
खूंटी पुलिस की मानें तो पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े कुल 19 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 172 लोगों को आरोपी बनाया गया है। अब हेमंत सोरेन के ऐलान के बाद इन आरोपियों पर दर्ज मुकदमे वापस ले लिए। खूंटी ऐसा जिला है जहां पत्थलड़ी आंदोलन का बड़े पैमाने पर असर देखा गया।
आंदोलनकारी नेता बोले, चुनाव से हमारा लेना-देना नहीं
यूनिसेफ में काम कर चुके और हिंदी प्रफेसर रहे युसूफ पूर्ति इस आंदोलन को गलत ठहराने वालों को ही गलत बता रहे हैं। उनका कहना है कि भारत आदिवासियों का देश है। वह भी इस देश का हिस्सा हैं। इन इलाकों में जो बैंक स्थापित हुए हैं, वे बिना ग्राम पंचायत के आदेश के हैं। राज्यपाल का आदेश भी उनके पास नहीं है। ऐसे में ये बैंक अवैध हैं। उनका कहना है, ‘हमें चुनाव से लेना देना नहीं है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे वोट दें। आम आदमी तय करेगा पीएम, सीएम कौन बनेगा। हम तो मालिक हैं इस देश के। हमें हमारा अधिकार सरकार नहीं दे रही है। ऐसे में हम नहीं, वे देशद्रोही हैं।’
SC का फैसला, ग्राम सभा को संस्कृति, संसाधन की सुरक्षा का हक
आंदोलन के नेताओं का कहना है कि आदिवासी इलाके अनुसूचित क्षेत्र हैं। यहां संसद या विधानमंडल से पारित कानूनों को सीधे लागू नहीं किया जा सकता। उनका कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 13(3) के तहत रूढ़ी और प्रथा ही विधि का बल है और आदिवासी समाज रूढ़ी और प्रथा के हिसाब से ही चलता है। वैसे हकीकत यह है कि किस प्रथा को नियम माना जाए, इसकी व्याख्या संविधान के अनुसार होती है। हर प्रथा को कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती। वन अधिकार कानून 2006 और नियमगिरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि ग्रामसभा को गांव की संस्कृति, परंपरा, रूढ़ि, विश्वास, प्राकृतिक संसाधन आदि की सुरक्षा का संपूर्ण अधिकार है। इसका अर्थ है कि अगर ग्रामसभा को लगता है कि बाहरी लोगों के प्रवेश से उसकी इन चीजों को खतरा है तो वह उनके प्रवेश पर रोक लगा सकती है।
नई सरकार ने हटाए आदिवासियों पर दर्ज मुकदमे
झारखंड की मौजूदा सरकार आदिवासियों की हितैषी मानी जा रही है। खुद सीएम हेमंत सोरेन आदिवासी समुदाय से आते हैं। सोरेन ने झारखंड का सीएम बनते ही हेमंत सोरेन ने पहली कैबिनेट में फैसला लिया था कि पत्थलगड़ी, सीएनटी और सीपीटी आंदोलन के दौरान लोगों के खिलाफ दर्ज किए गए मुकदमे वापस लिए जाएंगे। पिछली बीजेपी सरकार ने छोटा नागपुर टेनेंसी ऐक्ट (सीएनटी) और संथाल परगना टेनेंसी ऐक्ट (एसपीटी) में कुछ बदलाव किए थे। इन बदलावों के खिलाफ लोगों ने प्रदर्शन किए थे। इन प्रदर्शनों में हिस्सा लेने के चलते कई लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था। पूर्व सीएम रघुबर दास आंदोलन के पीछे नक्सलियों, ईसाई मिशनरियों का हाथ बताते रहे हैं। उनका आरोप था कि यह आदिवासियों को विकास से दूर करने, इन इलाकों के खनिजों पर कब्जा करने के लिए हो रहा है।