एक हिस्सा भी इस आदमी का इस्पात अगर मेरी रीढ़ में हो ….. पिता को पुत्र की श्रद्धांजलि
कहते हैं कि जब पुत्र को पिता के नाप का जूता आने लगे तो उन्हें मित्र हो जाना चाहिए। इस बहुश्रुत पारंपरिक बुद्धिमत्ता में बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य छुपा है। बढ़ते हुए पुत्र और पिता के बीच एक भय का रिश्ता होता है। इस भय का मतलब डर नहीं होता। इस भय में पिता की ओर से अनुशासन और पुत्र की ओर से सम्मान होता है। लाख प्यार-मुहब्बत के बावजूद यह हल्की सी औपचारिकता पिता और पुत्र के बीच में होती है जो अक्सर मां और पुत्र के बीच नहीं होती। इसका मतलब यह नहीं होता कि पुत्र अपने पिता को कम चाहता है। हां यह जरूर है कि बचपन में वह पिता को उस तरह समझ नहीं पाता। जैसे-जैसे पुत्र बड़ा होता है वह पिता को ज्यादा-ज्यादा समझने लगता है क्योंकि पिता के जूतों में उसके पैर आने लगते हैं। यानी एक पुरुष दूसरे पुरुष की जगह अपने को रखकर सोचने की स्थिति में आ जाता है।
राजविरेन्द्र वसिष्ठ, चंडीगढ़ :
आज सहसा ही इवान तुर्गनेव रूसी साहित्यकार के नॉवल ‘पिता और पुत्र’ की याद आ गयी। याद आया की किस प्रकार हर पिता अपने पुत्र में अपने ख्वाबों की पूर्ति के ख्वाब सँजोता है, वह किस प्रकार पाने अनुभवों को अपने पुत्र से सांझा करना चाहता है ‘मौन रह कर’। अपने बेटे की हर उठान पर खुद से घबराता पिता कि कहीं उसे (बेटे को) उसी की नज़र न लग जाये, एस सोच मन ही मन खुश होता है पर ऊपर से कठोर बना रहता है। ‘
मेरे मित्र विवेक वत्स को पित्र शोक हुआ है । मैं उन्हे कभी मिल नहीं पाया । मैंने उन्हे जाना विवेक के शब्दों से। उसकी वाणी से। जब भी वह अपने पिता की बात करता तो उसकी वाणी का ओज सहसा ही प्रेरित करता कि ऊनहे मिलूँ। पर दैवयोग। उनकी बात करते करते विवेक की आँखों में गर्व दिखता था। सच में कई बार ईर्ष्या होती उनका प्यार अनुभव कर । विवेक मूझे हमेशा कहता कि तू बजारोव/ बगारोफ (‘पिता और पुत्र’ का एक पात्र) न बन। तू है नहीं, 3 साल पहले अपने पिता को खोने के बाद मैंने समझी।
आज जब विवेक के पिता का समाचार मिला तो सब कुछ जो वह अपने पिता के बारे में बोलता था वह सब दिमाग में घूम गया। उसने जो शब्द आज अपने पिता के लिए कहे वह मेरे हृदय में हमेशा अंकित रहेंगे।
मैं आज अपने मित्र के दु:ख में द्खि हूँ, पर वहाँ मैं नि:शब्द हूँ जिसे अपने पिता पर इतना गर्व हो उसे सांत्वना – मेरे बस की नहीं। जिन शब्दों में उसने पाने पिता को याद किया उन्हे शब्द्श: प्रस्तुत कर रहा हूँ: दिवंगत आत्मा को यही हमारी श्रद्धांजलि होगी।
सीधी पीठ, छह फ़ीट क़द, सिर थोड़ा आगे झुका कर चलना, बैल जैसी ताक़त और वैसे ही आँख में आँख डाल कर सींग मारने की आदत.
डूंगर कालेज जैसे नामी college से law करने के बावजूद बीस साल प्राइमरी स्कूल के बच्चों को पढ़ाया, क्यूँकि इस से उनकी आत्मा को शांति मिलती है.
पहला केस, खुद का लड़ा emergency में, क्यूँकि सत्ता को भी सींग मारने थे.
गंगोत्री, जमनोत्री और केदारनाथ का सफ़र पैदल, बग़ैर एक फूटी कौड़ी के जेब में, भूखे और कई दिन नंगे पैर भी.
शैव मत पर किताब लिख कर राहुल संस्कृत्ययन जैसे बौद्ध से उसकी भूमिका लिखवा कर सब शैव मठों से लड़ाई मोल ली.
Cancer care and nursing पर चार किताबें लिखीं इस वकील ने जो मशहूर था तो “गुरुजी” के नाम से.
बेटी की विदाई की कविता गाता था तो सब की हिचकियाँ बंध जाती थीं. और हज़ारों की भीड़ को, अतिशयोक्ति नहीं सचमुच, हज़ारों की भीड़ को चार चार घंटे अपने भाषणों से बांध के रखता था.
इतने बड़े जूतों वाला ये आदमी, मेरे पिता, कल सुबह की चाय के बाद चले गए.
एक लम्बी भरपूर ज़िंदगी.
एक हिस्सा भी इस आदमी का इस्पात अगर मेरी रीढ़ में हो …..