पंजाब राजनीतिक और सामाजिक रूप से काफी संवेदनशील राज्य है। राज्य के 6 जिले फिरोजपुर, तरनतारण, अमृतसर, गुरदासपुर, पठानकोट और फाजिल्का की सीमाएँ पंजाब से लगती हैं। जनवरी 2016 में पठानकोट में हुआ हमला आज भी लोगों के जेहन में ताज़ा हैं, जब इस हमले में 7 जवानों का बलिदान हो गया था। अमृतसर का वाघा भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित है और यहाँ कई पर्यटक भी आते हैं। सिख समाज के लिए अमृतसर सबसे पवित्र स्थलों में से एक है।वहीं कुमार विश्वास दावा कर चुके हैं कि अरविंद केजरीवाल को अलगाववादियों का समर्थन लेने में कोई परहेज नहीं होगा और उनके यहाँ पहले भी इस किस्म के लोग आते-जाते रहते थे।
डेमोक्रेटिक फ्रंट – पंजाब :
एग्जिट पोल पंजाब में आम आदमी पार्टी (आआपा) को विजेता के रूप में पेश कर रहे हैं। 2017 के चुनाव में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला था। एग्जिट पोल में विभिन्न राजनीतिक दलों की झोली में गिरने वाली सीटों की संख्या अलग-अलग रही, लेकिन ज्यादातर पोल बता रहे थे कि आप को 117 सदस्यीय विधानसभा में 59 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। 2017 में कुछ सर्वे में आआपा को पूर्ण बहुमत मिलता दिखाया गया, लेकिन पार्टी को केवल 20 सीटें मिलीं।
पाकिस्तान से सटे पंजाब में हमेशा चुनौती रही हैं अलगाववादी ताकतें
पंजाब राजनीतिक और सामाजिक रूप से काफी संवेदनशील राज्य है। राज्य के 6 जिले फिरोजपुर, तरनतारण, अमृतसर, गुरदासपुर, पठानकोट और फाजिल्का की सीमाएँ पंजाब से लगती हैं। जनवरी 2016 में पठानकोट में हुआ हमला आज भी लोगों के जेहन में ताज़ा हैं, जब इस हमले में 7 जवानों का बलिदान हो गया था। अमृतसर का वाघा भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित है और यहाँ कई पर्यटक भी आते हैं। सिख समाज के लिए अमृतसर सबसे पवित्र स्थलों में से एक है।
अब आते हैं पंजाब में खालिस्तानी प्रभाव पर। राज्य में 80 के दशक में जब जरनैल सिंह भिंडरवाला का उभार हुआ और उसने स्वर्ण मंदिर को आतंकी गतिविधियों का अड्डा बना दिया, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने मंदिर के अंदर ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ चलाने का निर्णय लिया। इसी हमले के कारण कट्टरपंथी सिख आतंकियों ने इंदिरा गाँधी की जान ले ली। तब सेना प्रमुख रहे जनरल अरुण श्रीशर वैद्य को पुणे में मार डाला गया।
आआपा के संस्थापक सदस्य कवि कुमार विश्वास ने ही खोल दी पार्टी की पोल
अब आते हैं आआपा के खालिस्तानी कनेक्शन पर। हाल ही में आआपा के संस्थापक सदस्य रहे कवि कुमार विश्वास ने पार्टी के खालिस्तानी कनेक्शन के बारे में खुलासा करते हुए सवाल खड़ा किए। स्थिति ऐसी बन आई कि केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) को उन्हें ‘Y’ श्रेणी की सुरक्षा देनी पड़ी। उनके बयान के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री और कॉन्ग्रेस नेता चरणजीत सिंह चन्नी ने भी केंद्र सरकार से इस मामले की जाँच की माँग की। ये एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर कोई भी गंभीर नेता चिंतित होगा।
याद कीजिए, पंजाब में हालात आज भी उतने सही नहीं हैं। ऐसा इसीलिए, क्योंकि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल के साथ भी बैठक की थी। उन्होंने कुछ दस्तावेज सौंपे थे। मामले की संवेदनशीलता के कारण इस सम्बन्ध में कुछ बताया नहीं गया। एग्जिट पोल्स के सामने आने के बाद सीएम चन्नी भी अमित शाह से दिल्ली जाकर मिले।
फरवरी 2022 में कुमार विश्वास ने कहा था कि अरविंद केजरीवाल खालिस्तान समर्थक है, वो आदमी सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। उन्होंने कहा था कि आआपा सुप्रीमो हमेशा से खालिस्तान के समर्थक रहे हैं। उनके अनुसार, केजरीवाल ने तो यहाँ तक कहा था कि या तो वो पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे या फिर एक ‘आज़ाद देश’ के। स्पष्ट है, ये ‘आज़ाद मुल्क’ भारत के पंजाब से कट कर आएगा। इससे पता चलता है कि असली ‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’ कौन है।
एक ऐसे संवेदनशील राज्य, जहाँ की 60% जनसंख्या सिख है – वहाँ एक अलगाववादी विचारधारा वाले दल का सत्ता में आने खतरे से खाली नहीं होगा। कुमार विश्वास दावा कर चुके हैं कि अरविंद केजरीवाल को अलगाववादियों का समर्थन लेने में कोई परहेज नहीं होगा और उनके यहाँ पहले भी इस किस्म के लोग आते-जाते रहते थे। आआपा को इसके बाद ऐसी मिर्ची लगी थी कि पार्टी ने हर खबरिया चैनल को उनका वीडियो चलाने पर धमकी दी थी।
इसके बाद हुई रैलियों में अरविंद केजरीवाल ने खुद को ‘स्वीट आतंकवादी’ बताते हुए अपने विकास कार्यों को गिनाना शुरू कर दिया था। इस पर पलटवार करते हुए कुमार विश्वास ने कहा था, “वो यह कह दें कि किसी राज्य में खालिस्तानी को पनपने नहीं दूँगा। इतना कहना में क्या जा रहा है कि मैं खालिस्तान के खिलाफ हूँ। यह वो बोल कर दिखाएँ।” स्पष्ट है, आआपा की तरफ से किसी भी नेता ने खालिस्तान के खिलाफ एक भी बयान नहीं दिया।
ये वो समय है, जब ‘किसान आंदोलन’ के कारण पहले से ही पंजाब और दिल्ली में 1 साल से भी अधिक समय तक अशांति का माहौल रहा। कभी इस ‘किसान आंदोलन’ में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI के घुसने की खबर आई तो कभी ‘सिख्स फॉर जस्टिस (SFJ)’ के गुरपतवंत सिंह पन्नू ने कई वीडियो जारी कर के कई बार किसानों को भड़काया। कभी उसने पंजाब को काटने की बात की तो कभी लाल किला पर खालिस्तानी झंडा फहराने के लिए करोड़ों रुपए का इनाम रखा।
कुमार विश्वास के आरोप गंभीर थे, जिसके बाद कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने भी अरविंद केजरीवाल से जवाब माँगा था कि ये बात झूठ है या फिर सच। सीएम चन्नी ने आरोप लगाया कि SFJ लगातार आआपा के साथ संपर्क में है और अलगाववादी संगठन ने इस चुनाव में भी आआपा को समर्थन देने के लिए कहा था। उन्होंने कहा था कि देश की अखंडता के साथ किसी को भी खिलवाड़ करने का मौका नहीं दिया जाएगा। इन सबसे स्पष्ट है कि आआपा का आना खतरे से खाली नहीं है।
भगवंत मान जैसे नेता का पंजाब का CM बन जाना खतरे से खाली नहीं
एक और बात ये देखिए कि पंजाब में आआपा के सीएम उम्मीदवार कभी अभिनेता और कॉमेडियन रहे हैं। उनके पास प्रशासनिक अनुभव न के बराबर है। वो ज़रूर संगरूर से लगातार दूसरी बार सांसद हैं, लेकिन जिस तरह से उनके लड़खड़ाते हुए कई वीडियोज सामने आते हैं और इसे ‘उड़ता पंजाब’ से जोड़ा जाता है, उससे आप समझ सकते हैं कि एक ऐसे नेता जिसे गंभीर न माना जाता हो – उसके सत्ताधीश बनने के बाद कैसी स्थिति उत्पन्न होगी।
इसीलिए, चिंता का विषय ये है कि अरविंद केजरीवाल ही दिल्ली से इस सरकार को रिमोट कंट्रोल से चलाएँगे। 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कई एग्जिट पोल्स आआपा को बहुमत मिलने का दावा कर रहे थे और पार्टी ने जश्न की तैयारी भी कर ली थी, लेकिन कॉन्ग्रेस की जीत के उसके इरादों पर पानी फेर दिया। क्या इस बार भी ऐसा ही होगा? हमने तमाम ऐसे मौके देखे हैं जब नतीजे एग्जिट पोल्स के एकदम उलट ही आ गए।
वैसे, पंजाब जैसे राज्य में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलना और खंडित जनादेश का आना भी समस्या का विषय है। पंजाब में राजनीतिक स्थिरता चाहिए, चाहे सरकार में कॉन्ग्रेस आए, अकाली दल आए,या फिर कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा की जोड़ी (जिसकी संभावना नहीं दिख रही)। लेकिन, अलगाववादियों के बल पर किसी दल का सत्ता में आना पाकिस्तान के लिए ख़ुशी वाली खबर होगी। कॉन्ग्रेस के सिद्धू की भी पाकिस्तान से नजदीकी चर्चा में है। इन चीजों को देखते हुए 10 मार्च का अब सबको इन्तजार है।
जिस ‘किसान आंदोलन’ को अलगाववादियों के समर्थन की बात कही जा रही थी, उसके प्रदर्शनकारियों की खातिरदारी में भी दिल्ली की सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सीमा पर बैठ कर लोगों के लिए परेशानी का सबब बने इस किसान आंदोलनकारियों का हालचाल लेने के लिए आआपा के नेता समय-समय पर जाते रहते थे और उन्हें बिजली-पानी की सुविधाएँ जनता के टैक्स के पैसों से उपलब्ध कराई गई। स्पष्ट है, इन ‘किसान नेताओं’ से बदले में आआपा ने कुछ तो माँगा होगा?
साभार – अनुपम कुमार सिंह