नसीरुद्दीन शाह ने सच ही तो कहा है, बस आसपास देखिए तो जरा
भारत के लोगों में हिपोक्रेसी इतनी कूट-कूटकर भरी हुई है कि इनकी बुद्धियों को लॉजिक और सवाल-जवाब भेद भी नहीं पाते है। यहाँ अब अपनी बात किसी भी माध्यम से काही जा सकती है। अभी कुछ दिन पहले विराट कोहली पर उंगली उठाने वाले नसीरुद्दीन शाह अब भारत के सामाजिक ताने बाए से खौफजदा हैं। उन्हे आमिर खान कि तरह “भारत” में डर लगने लग गया है। जो व्यक्ति बर्फी और लड्डू में मजहबी फर्क करने पर खीज जाता था आज अपने मज़हब को ले कर पसोपेश में है। यह उनकी राजनैतिक बिसात है या फिर उनकी किसी नयी फिल्म क मसौदा यह तो वह ही जानें।
हिंदी सिनेमा के बड़े नाम नसीरुद्दीन शाह अपने बयान से न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम की बहस का मुद्दा बन गए हैं. अब उलट उनसे सवाल पूछा जा रहा है. ऐसी नौबत बनाई जा रही है कि उनको भी अपनी देशभक्ति साबित करने पर मजबूर होना पड़े. आमिर खान ने भी कुछ-कुछ ऐसा ही बयान दिया था और उन्हें आखिर में सफाई देनी पड़ी थी. उन्हें तो पाकिस्तान भेजने तक का न्योता भी मिल गया था. लेकिन शुक्र है कि पिछले कुछ वक्त से देश में पाकिस्तान भेजने की धमकी देने का चलन खत्म सा हो गया है. फिर उसे दोहरवाने कि इन्हे जरूरा पड़ी कहीं मामला राजनैतिक महत्वकांक्षा क तो नहीं?
‘बच्चों के लिए फिक्र होती है’
पूरा मामला कुछ यूं है कि ‘कारवां-ए-मोहब्बत इंडिया’ से एक इंटरव्यू में नसीरुद्दीन शाह ने बुलंदशहर हिंसा की घटना पर कमेंट किया था. उन्होंने कहा था कि उन्हें अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंता है. वो डरे हुए नहीं गुस्से में हैं. उन्होंने कहा कि देश में जहर फैलाया गया है और अब इसे रोकना मुश्किल है.
शाह ने कहा था कि उन्होंने अपने बच्चों को कभी किसी खास धर्म की शिक्षा नहीं दी है. उन्होंने अपने बच्चे इमाद और विवान को धार्मिक शिक्षा नहीं देना तय किया था क्योंकि उनका मानना है कि ‘खराब या अच्छा होने का किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है’, इसलिए उन्हें डर है कि अगर कभी भीड़ ने उनके बच्चों को घेरकर पूछ लिया कि वो किस धर्म के हैं, तो वो क्या जवाब देंगे?
शाह ने देश में हो रही मॉब लिंचिंग की घटनाओं के क्रम में जुड़े बुलंदशहर हिंसा पर टिप्पणी भी की. उन्होंने कहा कि देश में गाय के जान की कीमत एक पुलिसवाले से ज्यादा हो गई है. यहां गाय की मौत को पुलिस अधिकारी की हत्या से ज्यादा तवज्जो दी गई. उन्होंने कहा कि लोग कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं और उन्हें खुली छूट भी दे दी गई है.
शाह का अपने बच्चों के लिए डर होना 2015 में आमिर खान के असहिष्णुता पर दिए गए बयान की याद दिलाता है. खान की इस टिप्पणी के बाद जाहिर तौर पर विवाद पैदा हो गया था. उसी तरह शाह को भी निशाना बनाया जा रहा है.
शाह के सवाल पर सवाल
सबसे पहले बात राजनीतिक पार्टियों की. भारतीय जनता पार्टी की ओर से राकेश सिन्हा ने उनके इस बयान पर कहा है कि देश में कुछ लोग बदनाम गैंग में शामिल हो गए हैं. प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि देश में डरने जैसी स्थिति नहीं है. सच है यदि रोज़ सुबह कमा कर खाने वालों बच्चों से ले कर जवान औरतों को जैसा कि इनकी अभिनेत्रियों शबाना या समिता की तरह रसूखदारों की नज़रों से अपने आप को फटी साढ़ी में ढकतीं बचाती दिखाई जातीं थी उन्हे प्रतिदिन अपने आपको उसी जगह लाने में डर नहीं लगता तो फिर इनको कैसा डर? और यह साहब ज़रा बता तो दें की मुंबई धमाकों के बाद वहाँ कौन से धार्मिक उन्माद की बात इनहोने देख ली?
वहीं, न्यूज चैनलों पर सवाल पूछे जा रहे हैं कि नसीरुद्दीन शाह को बच्चों की चिंता क्यों हो रही है? क्या उन्हे सिर्फ अपने बच्चों की चिंता है, उनकी नहीं जो दिन रात सड़कों पर दो जून की रोटी और इस ठिठुरती ठंड मैनपने हाड़ गलने को मजबूर हैं। जिस देश ने उन्हें बुलंदियों पर पहुंचाया, अब वहां उन्हें डर क्यों लगने लगा है? इस बात की खातिर जमा रखिए जल्दी ही वह कोई टोपी पहने नज़र आएंगे, लोगों ने तो इसे 2019 की तैयारी भी बता दी है.
मीडिया भी तो खुश है. उसे समझ नहीं आ रहा कि शाह को डर क्यों लग रहा है? वो कैसे इतने सुरक्षित देश को असुरक्षित कह सकते हैं? देश ने तो कुछ वक्त से ऐसी कोई घटना देखी ही नहीं है, जिसमें डरने जैसी कोई बात हो. इसलिए शाह की बात ऐसी बेसिर-पैर है, जिसका ओर-छोर इन्हें समझ नहीं आ रहा और उनसे उलट सवाल पूछे जा रहे हैं.
अब जरा गंभीर सवाल-
– क्या पिछले कुछ वक्त में देश में मॉब लिंचिंग पर वह चाहे बंगाल में हो या फिर केरल में, मीडिया में सवाल नहीं उठाए गए हैं?
– क्या गौरक्षा/ असिहशुनता के अभियान को लेकर देश में बौद्धिक्क हिंसा नहीं बढ़ी है? क्या एक व्यक्ति विशेष के मुख्य पद पर बैठने से विपक्ष तिलमिलाया हुआ नहीं है? उसी का असर क्या कुछ समर्थकों की बातों में नहीं दीख पड़ता?
– क्या मीडिया ने देश में सुरक्षा को लेकर सरकारों पर सवाल नहीं उठाए हैं?
– क्या प्रशासनिक लापरवाही, गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव और सरकारी नाकामी पर मीडिया सवाल नहीं करता है? क्या आपकी फिल्मों में स्वावलंबन नहीं सिखाया जाता और इस पर भत्तों की आग में खुद को झोंक देने की मानसिकता चिंता क विषय नहीं है? किसानों की बुरी हालत क्या विगत पाँच वर्षों ही में हुई है? उनकी कर्जा माफी क्या मध्य वर्ग यानि आम आदमी जिसकी आप एक्टिंग करते आए हैं के गाढ़ी कमाई पर सीधा सीधा डाका नहीं है, क्या इससे आपको चिंता होती है।
– क्या मीडिया को देश बहुत सुरक्षित लगने लगा है और उसे अव्यवस्था, हिंसा, अपराध की खबरें मिलनी बंद हो गई हैं?
मीडिया ने ये सवाल उठाए हैं और उठाता रहा है. मॉब लिंचिंग हो या सरकारी नाकामी का मसला हो, मीडिया सवाल पूछता है. मीडिया जवाबदेही ढूंढता है, तो दिक्कत क्यों है?
आंखें मूंदकर बेवकूफ बने रहना ज्यादा पसंद है?
शाह ने कौन सी नई बात कही है? क्या इस देश में बहुत शांति आ गई है? क्या एक आम आदमी से लेकर रसूख वाले इंसान को यहां डर नहीं लगता? क्या देश में आर्थिक और सामाजिक तौर पर बहुत सामंजस्यता बन गई है? क्या कश्मीर में पत्थर बाजों ने सेना के रास्ते में आना बंद कर दिया है? क्या बंगाल में दलितों की हत्याएँ बंद हो गईं है? क्या केरल में राजनैतिक हत्याएँ बंद हो गईं हैं? क्या रोहिङ्ग्यओन को ले कर तुष्टीकरण की राजनीति बंद हो गयी है? क्या हमने एक दूसरे की भावनाओं की कद्र करना सीख लिया है, जिससे कि देश में डर खत्म हो जाना चाहिए?
हमारे यहां ये बड़ी समस्या है, अपनी चीज को खराब कहने में कोई दिक्कत नहीं, लेकिन यही बात कोई और कह दे तो हम उसपर चढ़ बैठते हैं. गर्व के भ्रम में इग्नोरेंस या कह लें अक्खड़ रुख को अपनाए बैठे हम खुद को एक बार नहीं आंकना चाहते.
इस पूरे मामले पर अप्रोच ऐसा होना चाहिए कि सच्चाई की ओर से आंखें मूंदकर सवाल दागने से अच्छा खुद ये सवाल उठाए जाएं. आखिर कोई ये बातें कह रहा है तो क्यों कह रहा है? देश में सुरक्षा क्यों नहीं है पूछने वालों से पूछा जाना चाहिए और कितनी सुरक्षा चाहते हो? आराम से काम पर जाते हो, पार्टियां करते हो, हर जगह मुफ्त की तोड़ते हो और फिर कहते हो की भावना असुरक्षा की है। और राजनीति करने वाले नेता समस्या को कैसे पोषित कर पा रहे हैं?
किसी आम आदमी से भी पूछ लीजिए कि वो इस देश में कितना सुरक्षित महसूस करता है. और बात बस धर्म की नहीं है, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा बहुत मायने रखती है. आपको लगता नहीं की आम आदमी किस तरह की जिंदगी बसर कर रहा है। आम आदमी टिकिट खिड़की पर लगता है आपको देखने के लिए अपने आप को आप में ढूँढता हुआ वह अपनी गाढ़ी कमाई का एक हिस्सा आपके लिए खर्चता है। आप उसके रोल .माडल हैं। आम आदमी अपने बेटे भाई माँ बीवी के मरने के कुछ दिन बीत जाने पर फिर से जीने की ओर अग्रसर होता है, ठीक उसी तरह जिस तरह आप रुपहले पर्दे पर। जब वही आम आदमी आपके नाटक पर तालियाँ पीटता है तब तो आपको डर नहीं लगता ज़ाहीर सी बात है आप को राजनैतिक डर लगता है। आपने अपने ब्यान से अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की है, आपको खुले मन से इस मंच पर आना चाहिए था न की भुक्तभोगी होने का नाटक कर कर। पर आप नाटक के अलावा और कर भी क्या सकते हैं.
हर मुद्दे को चल रही हवा की चलनी में छानकर मतलब की चीजों को निकालकर मुद्दों को उलझाया न जाए तो कुछ अच्छा हो. लेकिन फिलहाल तो सच में चीजें बदलती नहीं दिख रहीं.